
भारत में आर्थिक विकास, मुद्रास्फीति दर, आय और राष्ट्रीय आय (1962-1967)
1962 से 1967 का समय भारत के आर्थिक विकास के लिए एक महत्वपूर्ण चरण था। इस अवधि में युद्ध, खाद्य संकट और मुद्रास्फीति जैसी गंभीर चुनौतियाँ थीं, जिससे आमदनी और राष्ट्रीय आय की वृद्धि प्रभावित हुई। हालाँकि, औद्योगीकरण और आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के लिए कई महत्वपूर्ण नीतिगत परिवर्तन भी किए गए।
आर्थिक विकास (1962-1967)
इस अवधि के दौरान, भारत ने तीसरी पंचवर्षीय योजना (1961-1966) को लागू किया और चौथी पंचवर्षीय योजना (1966-1969) की शुरुआत हुई। हालांकि, कई बाहरी और आंतरिक संकटों के कारण आर्थिक विकास प्रभावित हुआ:
- भारत-चीन युद्ध (1962) और भारत-पाकिस्तान युद्ध (1965) के कारण रक्षा खर्च बढ़ गया, जिससे विकास योजनाओं के लिए धन की कमी हुई।
- 1965-66 के सूखे ने खाद्य संकट को और गंभीर बना दिया, जिससे भारत को PL-480 कार्यक्रम के तहत अमेरिका से खाद्य आयात पर निर्भर होना पड़ा।
- हरित क्रांति की शुरुआत हुई, जिसने कृषि उत्पादन बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
हालांकि आत्मनिर्भरता और औद्योगिक विकास पर ध्यान केंद्रित किया गया, लेकिन वित्तीय संकट और भुगतान संतुलन की समस्या बनी रही।
मुद्रास्फीति दर (1962-1967)
इस अवधि में भारत को उच्च मुद्रास्फीति का सामना करना पड़ा, जिसके प्रमुख कारण थे:
- युद्ध और रक्षा व्यय, जिससे सरकारी वित्त पर दबाव बढ़ा।
- 1965-66 में कृषि उत्पादन में गिरावट, जिससे खाद्य पदार्थों की कीमतों में भारी वृद्धि हुई।
- भारतीय रुपये का अवमूल्यन (1966)—सरकार ने रुपये का 36.5% अवमूल्यन किया ताकि निर्यात को बढ़ावा मिले और अर्थव्यवस्था स्थिर हो।
- राजकोषीय घाटा—सरकार ने मुद्रा आपूर्ति बढ़ाई, जिससे कीमतों में और वृद्धि हुई।
विशेष रूप से 1965-1967 के दौरान, आपूर्ति में कमी और मुद्रा अवमूल्यन के कारण मुद्रास्फीति अपने उच्चतम स्तर पर थी।
आय स्तर और राष्ट्रीय आय
- प्रति व्यक्ति आय: भारत की प्रति व्यक्ति आय कम रही और जनसंख्या वृद्धि तथा आर्थिक कठिनाइयों के कारण इसकी वृद्धि दर भी धीमी रही।
- राष्ट्रीय आय वृद्धि: सकल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) में वृद्धि हुई, लेकिन अपेक्षित दर से कम रही, जिसका मुख्य कारण कृषि और औद्योगिक विकास में आई रुकावटें थीं।
- विभिन्न क्षेत्रों का योगदान:
- कृषि: 1965-66 में सूखे के कारण कृषि उत्पादन में बड़ी गिरावट आई।
- उद्योग: विस्तार हुआ, लेकिन पूंजी और कच्चे माल की कमी से उद्योग प्रभावित हुए।
- सेवा क्षेत्र: इस अवधि में शहरी क्षेत्रों में सेवा क्षेत्र का महत्व बढ़ने लगा।
हालांकि इस दौरान आर्थिक चुनौतियाँ बनी रहीं, लेकिन हरित क्रांति और औद्योगिक नीतियों ने भविष्य में आर्थिक सुधार की नींव रखी।
निष्कर्ष
1962-1967 की अवधि संघर्ष और परिवर्तन दोनों की गवाह बनी। युद्ध, मुद्रास्फीति और खाद्य संकट ने आर्थिक वृद्धि को बाधित किया, लेकिन 1966 के मुद्रा अवमूल्यन और हरित क्रांति जैसी नीतियों ने दीर्घकालिक सुधार की दिशा में कदम बढ़ाए। हालांकि इस समय में आय की वृद्धि धीमी रही और मुद्रास्फीति का दबाव बना रहा, भारत ने आत्मनिर्भरता और आर्थिक पुनर्गठन की ओर एक मजबूत कदम बढ़ाया।